गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में मुकाबला दिलचस्प बना

गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में मुकाबला दिलचस्प बना

गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में मुकाबला दिलचस्प बना

गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में मुकाबला दिलचस्प बना

विजय कुमार सिंह की एक रिपौर्ट

आई एन न्यूज ब्यूरो गोरखपुर। गोरखपुर संसदीय सीट के उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हर हाल में शिकस्त देने के लिए बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के एक साथ आ जाने से मुकाबला दिलचस्प हो गया है। एक ओर जहां सीएम योगी प्रत्याशी के पक्ष में सभा पर सभा व कार्यकर्ताओं की बैठक ले उनमें जौश भर रहे है। वहीं दूसरी ओर पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने भी मंगलवार को चम्पादेवी पार्क में सभा कर अपना दमखम दिखाया।
सपा व बसपा के लिए यह उपचुनाव अग्निपरीक्षा से कम नहीं है, क्योंकि गोरखपुर सीट अब तक गोरखनाथ मंदिर के पास रही है। इस कारण इस सीट पर जीत हासिल करने के लिए बसपा एवं सपा को कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है।
भारतीय जनता पार्टी के लिए भी यह सीट जीतना प्रतिष्ठा का सवाल बन गया हैं,क्योंकि गोरक्षापीठ के पीठाधिश्वर एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यहां से पांच पर जीत हासिल कर चुके हैं और उनको मुख्यमंत्री बनाए जाने से यह सीट रिक्त हुई है। इस कारण इस सीट से मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा भी जुड़ी हुई है। भाजपा भी इस सीट को किसी हालत में खोना नहीं चाहाती है।
बदले राजनीतिक परिवेश में अब मुकाबला भाजपा एवं सपा उम्मीदवारों बीच होता नजर आ रहा है हालांकि यहां से कांग्रेस ने भी अपने प्रत्याशी के रूप में सुरहिता करीम को चुनाव मैदान में उतारा है। साथ ही निर्दलीयों सहित कुल 10 प्रत्याशी अपना भाग्य अजमा रहे है।
बसपा द्वारा सपा उम्मीदवार को गोरखपुर और फूलपुर सीट पर समर्थन से भले ही राजनीतिक हलके में एक बडे परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन जिस परिवर्तन की संकल्पना की जा रही है उसके लिए यह उपचुनाव दोनों दलों के नेताओं के कौशल की कडी परीक्षा लेने वाला है।
सपा, बसपा और लोकदल के नेता भले ही 23 साल बाद इस उपचुनाव की सभाओं में मंच साझा कर रहे हैं लेकिन इनका वोट बैंक दलित, मुस्लिम, यादव और निषाद बंटे हुए हैं तथा इनके बीच 23 वर्षों में खाई इतनी बढ़ गयी है कि इन वोट बैंकों का अपना मन साझा करने में बड़ी झिझक का सामना करना पड़ रहा है।
गोरखपुर संसदीय क्षेत्र में पांच विधानसभा क्षेत्र कैम्पियरगंज, गोरखपुर शहर, गोरखपुर ग्रामीण, पिपराइच और सहजनवा आते हैं। यदि वर्ष 2017 उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के परिणामों और प्राप्त मतों पर नजर रखी जाए तो यह बात स्वीकार करनी पडेगी कि गोरखपुर शहर को छोडकर अन्य चार विधान सभा सीटों पर भाजपा की जीत और दूसरे नम्बर पर रहे सपा एवं बसपा उम्मीदवारों के बीच अन्तर 15 हजार मतों से अधिक नहीं था।
विधान सभा चुनाव सपा ने कांग्रेस के साथ मिलकर लडा था और गोरखपुर शहर सीट पर सपा का कोई उम्मीदवार नहीं था और कांग्रेस ने इस सीट पर अपना उम्मीदवार खड़ा किया था, जिसेे कुल 61 हजार 499 वोट मिले थे जबकि भाजपा को एक लाख 22 हजार वोट मिले थे। इस तरह इस सीट पर हार-जीत का अन्तर लगभग 60 हजार वोटों का था। बसपा का उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहा था।
इसी तरह पिपराइच विधान सभा क्षेत्र में भाजपा उम्मीदवार को 82 हजार 739 मत प्राप्त हुए थे जबकि उसके निकटतम प्रतिद्वन्दी बसपा के आफताब आलम को 69 हजार 930 वोट मिले थे। यहां सपा उम्मीदवार अमरेन्द्र निषाद को 44 हजार वोट मिले थे और यदि सपा और बसपा के वोट जोड दिए जाए तो भाजपा से 40 हजार मतों से आगे निकल जाएंगे।
गोरखपुर ग्रामीण विधान सभा सीट पर भी बहुत निकट का मुकाबला था। भाजपा को 83 हजार 686 वोट मिले थे जबकि दूसरे नम्बर पर सपा प्रत्याशी को 64 हजार 927 वोट मिले थे। यहां बसपा उम्मीदवार को लगभग 33 हजार और निषाद पार्टी को सात हजार वोट मिले थे। यदि निषाद, सपा और बसपा को प्राप्त मत जोड दिया जाए तो भाजपा 21241 हजार मतों से पिछड़ जाएगी।
सहजनवा और कैम्पियरगंज विधान सभा क्षेत्र में भी हार-जीत का अन्तर बहुत कम था। यही कारण है कि बसपा और सपा के एक साथ आने से जहां इन दोनों दलों के नेताओं और सम्भावनाओं को पंख लग गए हैं वहीं बसपा द्वारा समर्थन के 72 घंटे बाद भी निचले स्तर के कार्यकर्ताओं में कोई जोश और उत्साह नजर नहीं आ रहा है।
इसका कारण यही बताया जा रहा है कि कांशीराम और मुलायम सिंह यादव वाला गठबंधन नहीं है बल्कि अब हर कदम फूंक फूंक कर रखा जा रहा है। इस समर्थन में संशय, झिझक और भय व्यापत है जिसका फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिल सकता है।
पिछले 30 वर्षों बाद कोई पूर्वी उत्तर प्रदेश का नेता मुख्यमंत्री बना है जिसने विकास के क्षेत्र में उपेक्षित गोरखपुर के विकास के लिए जी तोड मेहनत करके बजट का मुंह गोरखपुर की ओर मोडा है जिसका सकारात्मक संदेश है और इसका लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा।
भाजपा ही नहीं बल्कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए यह सीट हमेशा से प्रतिष्ठा का प्रश्न रही है और अब मुख्यमंत्री बनने के बाद इस सीट पर जीत सुनिश्चित करने का उन पर अत्यधिक दबाव भी है।

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