हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष: मूर्छा में जा रहे पत्रकारों को कौन देगा संजीवनी

हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष: मूर्छा में जा रहे पत्रकारों को कौन देगा संजीवनी

हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष: मूर्छा में जा रहे पत्रकारों को कौन देगा संजीवनी

हिंदी विश्व की एक मात्र ऐसी भाषा है, जिसमें मानव प्रवृत्ति के प्रत्येक भावों को व्यक्त करने के लिये अलग-अलग शब्द हैं। शब्द भी ऐसे जो अपने भीतर “सार” समेटे हैं। वो “सार” जिन्हें पढ़ने मात्र से भावनाएं जाग उठे। ऐसे “शब्द -धनी” हिंदी भाषा को जब एक “क्रमबद्ध वाक्यों” में पिरोने की प्रथा चली, तो हिन्दी पत्रकारिता का उदय हुआ। लेख़क पत्र को आकार देता है, उस आकार में कुछ़ छिपा होता है। पाठक उस पत्र आकार में छ़िपे उस चीज़ को तलाशता है, जो कि उसके भावों को जगा दे। एक ही पठ़न में पाठक लेख़ के “सार” को आसानी से मनोसंग्रहित कर ले, तो लेख़क का अहोभाग्य। वह जीत गया। हिंदी पत्रकारिता की सिरमौरता क़ायम रही। ,,,शुरुआती हिंदी पत्रकारिता का दौर कुछ़ ऐसे ही निकल पड़ा। ब्रिटिश काल था। मगर हिन्दी भाषी बुद्धिजीवी व समाजिक चिंतनकर्ताओं ने अपने पत्र के आकार से पाठ़कों के चिंतनबिंदु को जगाने का काम शुरु किया। मनोरंजन,हास्य,उपदेशक,आलोचनात्मक,व्यंगात्मक, काव्य और चिंतक प्रकार के लेख़कों ने पत्रकारिता के कई आयामों को उदय किया। इसी आयामों के उदय ने लोगों को स्वतंत्रता और परतंत्रता में विभेद जगाया। भावनाएं जगने लगी। सभी को स्वतंत्रता की तलब़ रही। पत्र के आकार भी गुलामक़ालिक बेड़ियों को तोड़ स्वतंत्रता के पथ पर अग्रसर हो गये। और अंततः पत्र के आकारों ने भारत को स्वतंत्र करने में मुख्य भूमिका निभाई। पत्रकारिता के महत्व के महात्मा गांथी व पंड़ित जवाहरलाल नेहरु ने भी समझा। लिख़ा, और अच्छ़े पत्रकार कहलाये।
सब कुछ तो ठ़ीक रहा, मगर सबसे दुर्भाग्य की बात यह रही कि पत्रकारिता लक्ष्य विहीन हो गयी। वह जाय तो कहां और किधर जाए। ख़ासकर हिंदी पत्रकारिता। कुछ दैनिक व साप्ताहिक समाचार पत्रों ने “पत्र-आकारिता” को बचाए रख़ने की कवायद् शुरु की। मगर आजाद व आधुनिक भारत में कुछ ऐसे रंग आ मिले जिससे पत्रकारिता सीमित हो गई। इर्द-गिर्द प्रकार की। व्यापारिक होने लगी। कलम विचलित व भट़के भावों को जगाने लगे। इस दुर्दशा का शायद भारतीय संविधान निर्माताओं को भी अंदेशा रहा। शायद इसी लिये पत्रकारिता को संविधान में कोई स्थान नहीं मिल सका। सिर्फ मौख़िक रुप से मान लिया गया कि पत्रकारिता राष्ट्र निर्माण का “चौथा स्तंभ” है।
एक ज़माना था जब लोग पत्राकारिता शौक़ के लिये करते थे, अपनी मनोभावना को क़लम के माध्यम से क़ागज़ों पर लिपिबद्ध करते थे। ऐसे लेख सराहनीय होते थे। दिख़ावे की नहीं बल्कि पाठक की आत्मीय प्रसंशा पाते थे। मगर नितदिन व्यापारिक व अर्थ ग्रसित हो रहे समाज तथा तंत्र ने पत्रकारिता को मूर्छित सा कर दिया है। पत्रकारिता अर्थ व व्यापारिक उद्देश्य के लिये अपह्रित कर ली गयी है। आधुनिक चक़ाचौंध, पद व पहुंच की होड़ में आज का पत्रकारिता स्वरूप सत्ता पक्षीय हो गया है। यह कहा जा सकता है कि वास्तविक पत्रकारिता ख़ुद अपने जम़ीन पर ही जम़ीन तलाश़ते-तलाश़ते थ़क गयी हैं, अच़ेत सी अपनी ही व्यथा की तमाशबीन बन गयी है। लिख़ने के भाव व जज़्बात तो हैं, लेकिन उनके क़लम की स्याही खत्म है, काग़ज काले पड़ गये हैं। “हिंदी पत्रकारिता” अपने पतन के अंतिम मुहाने पर मूर्छ़ित पड़ी है। संजीवनी के इंतज़ार में। सवाल यह कि मूर्छ़ाग्रसित हो रहे पत्रकारों की औषधि कौन लायेगा। या फिर गुलामकाल का इंतजार करें,,जब आज़ादी की तलब़ होगी फिर देख़ा जायेगा।
— (धर्मेन्द्र चौधरी )

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