भारत व चीन की द्वंदता के बीच चतुर नेपाल
भारत व चीन की द्वंदता के बीच चतुर नेपाल
– नेपाल में हावी होती माओ राजनीति भारतीय कूटनीति के लिये चिंता
धर्मेंद्र चौधरी
विश्व का एकमात्र हिंदू राष्ट्र रहा और कभी न गुलाम होने वाला देश नेपाल आज भारत व चीन की कूटनीति का केंद्र बना हुआ है। भले ही चीन व भारत आज नेपाल को कूटनीतिक हिसाब से हल्के में ले, मगर पिछ़ले दो दशक में नेपाल में जो परिवर्तन आये हैं। वह निश्चित ही तारीफ योग्य और शातिराना हैं। यह तारीफयोग्यता एक राष्ट्र संकल्पना के नजरिये से है, और शातिराना विदेश व कूटनीति के नज़रिये से है।
चीन व भारत पर नज़र ड़ाला जाय तो, उनमें कई मुद्दों पर द्वंदता है। तिब्बत, ब्रहंपुत्र नदी की जलधारा व मैकमोहन रेखा के इर्द-गिर्द पुराने विवाद आज भी इंडो-चीन रिश्तों की कटुता बरकरार किये हुये हैं। ऐसे में एशिया के ये दोनों मज़बूत राष्ट्र पड़ोस के कमजोर राष्ट्रों पर निवेशिक साम्राज्यवाद स्थापित करने की होड़ में हैं।
दोनों की निगाह पूर्ण गणतंत्र राष्ट्र बनने के मुहाने पर खड़े नेपाल की तरफ है। मगर क्या नेपाल, भूटान की तरह आसान देश है? नेपाल के संदर्भ में ऐसा नहीं कहा जा सकता। नेपाल में चीन समर्थित माओवादी विचारधारा की राजनीति का मजबूती से स्थापित होना, नेपाल में भारतीय कूटनीतिक विफलता रही। और हालात तब से पटरी पर आते नहीं दिखे। रोटी-बेट़ी के रिश्ते वाली खुली भारत-नेपाल सीमा पर सशस्त्र सीमा बल के जवानों की तैनाती की मजबूरी होना। यह बयां करने के लिये काफी है कि नेपाल से कूटनीति के मामले में भारत निरंतर बैकफुट पर है।
नेपाल के तराई में बसने वाले भारतीय मूल के मधेशी समुदाय ने आंदोलन का बिगुल बजाकर भारतीय साम्राज्यवादिता को मजबूत करने एक सुनहरा अवसर प्रदान किया। मगर इस अवसर को न तो विदेश मंत्री सुष्मा स्वराज समझ पायी और ना ही प्रधानमंत्री नरेंद्र के पल्ले पड़ी। नतीजा यह रहा कि चीन ने नेपाल के पहाड़ी इलाकों में अपनी कूटनीतिक बिसात फैला दी। भारत के विरोध में स्वर फूटने लगे और वर्ष 2016 में नेपाल ने भारत पर आर्थिक नाकाबंदी का आरोप लगाते हुये संयुक्त राष्ट्र संघ में गुहार लगा दी। भारत को सफाई देनी पड़ी कि नेपाल के मधेश आंदोलन से उनका कोई लेना देना नहीं है।
लेकिन यहां शायद भारत चेत गया। नेपाल में वर्ष 2015 में आये भूकंप में अतिमदद का यही सिला था?
यहां नेपाल की चालाकी रही, और चीन की कुटिलतापूर्ण मुस्कान। नेपाल अब चालाक हो गया। इसे समझना होगा।
शुरूआत से। ऐतिहासिक पन्नों के उस दौर को खंगालना पडे़गा। जब सन् 1814-1816 के बीच ब्रिटिश-नेपाली राजा के बीच हुये युद्ध के बाद सुगौली की संधि हुई। संधि की अहम बात यह रही कि भारत के कई भू-भाग नेपाल में निहित हुये और नेपाल के कुछ़ भू-भाग भारत के हो गये। रिश्ते रोटी-बेटी वाले बन गये। नेपाल के राजतंत्र काल तक भारतीय रिश्ते प्रगाढ़ रहे। चाहे वह ब्रिटिश कालिक भारत रहा हो, या फिर आजाद भारत।
मगर नेपाल के राजा विरेंद्र विक्रम शाह की पूरे परिवार समेत सामुहिक हत्या के बाद नेपाल का राजनैतिक स्वरूप कुछ़ बदले-बदले अंदाज में होने लगा। चीन की दस्तक नेपाल में अचानक हावी होने लगी। चीन की कूटनीति नियंत्रित रास्ते पर थी।
वहीं दूसरी तरफ भारतीय राजनीति अपने ही गृह राजनीति के ताने बाने में उलझ गयी। पांच साल सत्ता और अगले पांच साल के सत्ता की जुगत में कांग्रेस व भाजपा समेत तमाम भारतीय राजनैतिक दल विदेश नीति के जमीन से गुमराह हो गये। परिणाम यह रहा कि बांग्ला देश और श्रीलंका जैसे मित्र पड़ोसी राष्ट्र भी कुछ़ रार के पथ पर हैं। अंतिम प्रगाढ़ मित्र नेपाल में भी विरोध के स्वर होना। किसकी चालाकी और किसकी विफलता है? यह सोंचने का विषय है। फिलहाल तो चीन द्वारा कैलाशमान सरोवर यात्रा रोके जाने प्रकरण के बीच पश्चिमी बंगाल से गोर्खा लैंड़ की मांग जैसा आंदोलन होना। और इस आंदोलन की गूंज नेपाल के पहाड़ी वादियों तक पहुंचना। बहुत कुछ़ कह रहा है।
नेपाल चालाक हो गया है। क्या सिर्फ यह कह देने मात्र से भारत की कमजोर विदेशनीति के दिन बहुर जायेंगे? या चीन की कुटिलता कम हो जायेगी?